Posted: July 3, 2020
वर्तमान समय में, हमारा संसार अनेक संघर्षों में उलझा हुआ है। पहले, हमें एक विश्वव्यापी महामारी ने जकड़ लिया जिसके कारण हमारे जीवन में अब कुछ भी सामान्य नहीं रहा। हमारा दूसरा संघर्ष गहरी जड़ जमाए हुए नस्लवाद की खुल्लमखुल्ला अभिव्यक्ति से है जिसके कारण लगातार हमारे अश्वेत भाई बहन मारे जा रहे हैं और अत्याचार झेल रहे हैं। विश्वव्यापी महामारी और सुनियोजित नस्लवाद - दोनों ही अपने आप तक सीमित संघर्ष नहीं हैं। दोनों ही एक ऐसी असमानता को सामने लाते हैं (नस्लीय और आर्थिक) जिसके कारण लगातार दुख और पीड़ा उत्पन्न होती जा रही है।
ये संघर्ष इस बोध को सामने लाते हैं कि परमेश्वर के शान्ति का राज्य अब तक इस पृथ्वी पर साकार नहीं हुआ है। किन्तु, यदि, हम उन लोगों की पुकार की ओर ध्यान लगाएं जो साँस नहीं ले पा रहे हैं - कोविड -19 के कारण या पुलिस की बर्बरता के कारण - हम उन लोगों के साथ एकजुटता दिखाना सीख सकते हैं जो पीड़ा में हैं और/या अत्याचार झेल रहे हैं।
बाइबल में एक ऐसे परमेश्वर के बारे में बताया गया है जो हताश, मूलभूत अधिकारों से वंचित, और पीड़ित लोगों के साथ साथ चलता है। बाइबल में, परमेश्वर पर विश्वास करने वालों और उसके पुत्र यीशु मसीह के पीछे चलने वालों के लिए भी बुलाहट दी गई है कि वे यह जानें कि किस प्रकार से सारी मानवजाति एक दूसरे से जुड़ी हुई है। यदि कोई एक व्यक्ति दुख पाता है, तो इसका अर्थ है कि सृष्टि में सब कुछ ठीक नहीं है; सब कुछ वैसा नहीं है जैसा होना चाहिए। यदि हम परमेश्वर की शान्ति और न्याय को इस संसार में साकार करने का बोझ रखते हैं, तो एक व्यक्ति को भी यदि कुछ होता है, तो यह सब लोगों के लिए चिन्ता की बात होनी चाहिए। यदि हम शान्ति की एक कलीसिया बनना चाहते हैं, तो हमें यह स्वीकार करना आवश्यक है कि हम एक दूसरे से जुड़े हुए हैं, हमें अन्याय को चुनौती देना है, और दुख सह रहे लोगों के साथ खड़ा होना है।
किन्तु, यह स्वीकार करने का अर्थ कि हम एक दूसरे से जुड़े हुए हैं, यह है कि हमें “व्यक्तिगत” के भ्रम को तोड़ना है। “व्यक्तिगत” की धारणा यह कहती है कि एक व्यक्ति दूसरों से “स्वतंत्र” या “अलग” है। यह धारणा यह मान लेती है कि एक व्यक्ति दूसरों पर “निर्भर रहे बिना” रह सकता है; और इस धारणा को अस्वीकार करती है कि एक व्यक्ति की क्रियाओं को दूसरे लोग निर्धारित या प्रभावित करते हैं। इसलिए जब हम “व्यक्तिगतवाद” पर जोर देते हैं, तो एक ऐसा संघर्ष आरम्भ हो जाता है जो दूसरे से स्वतंत्र हो जाने का प्रयास करता है।
किन्तु, पिछले कुछ महीनों में कोविड-19 के कारण जो बात सामने आई है, वह यह है, हम किस प्रकार से एक दूसरे से स्वतः ही जुड़े या बन्धे हुए हैं। और यह एक ऐसी वास्तविकता है जिसे अत्याचार सह रहे और शोषित लोग हमें पहले ही बता चुके होते। सीधी सी बात है, हम जो कुछ करते हैं, वह दूसरों को प्रभावित करता है। और दूसरे जो कुछ करते हैं, वह हमें प्रभावित करता है। चाहे भली बात हो, या बुरी, सब बातों में हम एक दूसरे से स्वतः ही जुड़े हुए हैं। यदि हम इस बात की ओर ध्यान दें कि कोविड -19 किस प्रकार से फैल रहा है, तो यह सच्चाई अपने आप हमारी समझ में आ जाएगी।
दक्षिण अफ्रीका में, उबुन्टु की धारणा एक गहरी और अर्थपूर्ण बात स्मरण दिलाती है। उबुन्टु एक वाक्यांश - उमुन्टु नगुमुन्टु नगाबन्टु - के संक्षिप्त रूप के रूप में प्रयोग में लाया जाता है, जिसका अर्थ है, “एक व्यक्ति जो कुछ है वह दूसरे लोगों के कारण ही है।”
दक्षिण अफ्रीका में, उबुन्टु ने उपनिवेशवाद और रंगभेद के इतिहास और अनुभव को एक वैकल्पिक तर्क प्रदान किया है। रंगभेद जिसके मूल शब्द अपारथाइड का शब्दशः अर्थ “अलग रहने की प्रवृत्ति” होता है, एक ऐसा कठोर स्वरूप था जो रंगभेदी अलगाव पर आधारित था। यह यूरोपीय उपनिवेशवाद से उत्पन्न हुआ और एक ऐसा वैधानिक तंत्र बन गया जो श्वेतों की प्रधानता और श्वेतों के विशेषाधिकारों पर आधारित था और इसे बढ़ावा देता था जबकि जिन्हें यह “श्वेत नहीं” मानता था उन्हें दबाता और उन पर अत्याचार करता था। रंगभेद एक प्रकार का सोशल इन्जिनियरिंग (सामाजिक परिवर्तन को अपने तरीके से व्यवस्थित करने और भविष्य में समाज के विकास और आचरण को नियंत्रित करने प्रयास में केन्द्रिकृत योजना) था, जो अलगाव और “दूसरों के प्रति” भय को बढ़ावा देता था, और ऐसा करने के द्वारा जो “श्वेत नहीं” हैं, उनके विरुद्ध किए जा रहे अत्याचार और हिंसा को सहीं ठहराता था।
रंगभेद के विरुद्ध संघर्ष के दौरान पूरे समय (जो अधिकारिक रूप से 1994 में समाप्त हुआ) और दक्षिण अफ्रीका में प्रजातंत्र के आरम्भिक वर्षों में, उबुन्टु के सिद्धांत ने प्रेरणा और दर्शन प्रदान किया। इस सिद्धांत ने इस बात को सामने लाया कि किस प्रकार से रंगभेद और इससे उत्पन्न होने वाला अलगाव और बहिष्कार न सिर्फ एक व्यक्ति के सम्मान पर प्रहार करता है, परन्तु एक व्यक्ति की मानवता पर भी! उदाहरण के लिए, डेसमंड टूटू, हमेशा उबुन्टु के सिद्धान्त का हवाला देते थे जब भी वे रंगभेद की भेदभाव करने वाली प्रथा और इसकी विचारधारा को चुनौती दिया करते थे। वे लोगों को यह स्मरण दिलाया करते थे कि “मेरी मानवता का, स्वाभाविक रूप से, आपकी मानवता के साथ अटूट बन्धन है, और वैसे ही, आपकी मानवता कामेरी मानवता के साथ।”
मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि उबुन्टु का यह सिद्धांत एक ऐसा सिद्धांत है जिसे हम वर्तमान में अपनाना चाहेंगे। इस सिद्धांत की सहायता से हम फिलिप्पियों 2ः3-4 को अच्छी तरह से समझ सकते हैंः
विरोध या झूठी बड़ाई के लिए कुछ न करो, पर दीनता से एक दूसरे को अपने से अच्छा समझो।
हर एक अपने ही हित की नहीं, वरन दूसरों के हित की भी चिन्ता करे।
यदि एक अंग दुख पाता है, तो सब अंग उसके साथ दुख पाते हैं।
एक दूसरे से जुड़े होने के इस प्रकार के दर्शन को अपनाने पर कुछ परिणाम भी सामने आते हैं। हमारे साथ यदि कुछ होता है, तो इसका असर दूसरों पर भी होता है। और दूसरों के साथ यदि कुछ होता है, तो इसका असर हम पर भी होता है। और इससे न सिर्फ इस बात पर असर होता है कि हम क्या हैं, परन्तु इस बात पर भी, कि हम क्या करते हैं! दूसरे शब्दों में, यह हमें एक सामाजिक दर्शन प्रदान करता है, व्यक्तिगत दर्शन नहीं!
इस प्रकार के दर्शन को साकार करने के लिए एकजुट हो कर कदम उठाना आवश्यक है। हमें मान कर चलना है कि अपनी नहीं, बल्कि हम दूसरों की मर्जी पर चल रहे हैं। इस प्रकार के आचरण को अपनाने में आनन्द की बहुत सी बातें पाई जाती हैं। परन्तु इसका अर्थ यह है कि यदि हम एक दूसरे के दुखों को साझा करते हैंः तो जब एक अंग दुख उठाता है, तो सब अंग दुख उठाते हैं।
अतः, यदि हमें स्वस्थ रहना है, तो हमें यह भी सुनिश्चित करना होगा कि दूसरे स्वस्थ रहें। यदि हम एक ऐसा संसार चाहते हैं जहाँ प्रत्येक व्यक्ति को मानव और परमेश्वर की ओर से दी गई एक भेंट समझ कर उसे आदर और मान सम्मान दिया जाता है - तो हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि “इन छोटे में से छोटो” (जो सत्ता और अधिकारियों की दृष्टि में कोई मायने नहीं रखते) को प्रतिष्ठा और मानवता के लिए हमारे प्रयासों में सबसे आगे और केन्द्र में रखा जाए। बुनियादी स्तर पर, दूसरों के साथ एकजुटता का अर्थ यही है।
किन्तु, एकजुटता के जीवन का अर्थ है कि हमें दूसरों के संघर्षों को समझना आवश्यक है। दूसरे शब्दों में, दूसरों के साथ एकजुटता दिखाने का अर्थ यह है कि हम भी अपने द्वारा बनाई गई सामाजिक वास्तविकताओं के प्रति जागरूक रहें और उनका आँकलन करें ताकि हम यह अच्छी तरह से समझ पाएं कि दूसरे क्यों और किस तरह से दुख उठा रहे हैं।
इसी में विलाप का अर्थ पाया जाता है। विलाप को समझना - किसी की पुकार, किसी की पीड़ा, किसी की वेदना को समझना - इस बात का बोध कर पाना है कि सब कुछ वैसा नहीं है जैसा होना चाहिए। और यह हमारे भीतर चेतना उत्पन्न करता है (इससे यह चेतना उत्पन्न होना भी चाहिए) कि हम यह जाँचे कि कुछ लोग दुख क्यों झेल रहे हैं, और उन मुद्दों को चुनौती दें जो इस प्रकार का दुख उत्पन्न करते हैं। विलाप एक अवसर प्रदान करता है कि हम अपने सामाजिक दर्शन को रूप दें; यह हमें चुनौती देता है कि हम यह पहचान सकें कि सहीं क्या है, कहाँ सामंजस्य की कमी है, और किस प्रकार का परिवर्तन आवश्यक है ताकि प्रत्येक व्यक्ति परमेश्वर की शान्ति का अनुभव कर सके।
आज हमें एक ऐसी ही कलीसिया बनने की आवश्यकता है - “बुलाए हुए”। यह एक ऐसा अवसर सामने लाती है कि हम दूसरों के साथ एकजुटता की भावना प्रगट करते हुए कलीसिया की सेवा को साकार करेंः यह सुनिश्चित करने के लिए संघर्ष करें कि प्रत्येक व्यक्ति को चिकित्सा सुविधा, भोजन, आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा, तथा उचित मान सम्मान प्राप्त हो सके।
जब हम इस प्रकार की कलीसिया बनने के निमंत्रण को स्वीकार करते हैं, तो हम आशा के एक दर्शन के भागी बन सकते हैंः कि परमेश्वर हमारे साथ है, हमारे माध्यम से कार्य कर रहा है, और उसने हमें त्यागा नहीं है। यह हमें संसार के प्रति हमारी सेवा को साकार करने के लिए और मसीह की शान्ति के मार्ग की गवाही देने के लिए प्रेरित करता है जबकि हम परमेश्वर के अनेक प्रकार के ज्ञान का संसार भर में प्रचार करने में सहभागी बनते हैं।
प्रभु हमारी सहायता करे कि हम विश्वासयोग्यता से उसके कार्यों को पूरा कर सकें।
—आमीन।
एन्ड्र सुडरमान, पीस कमीशन के सचिव। वे अमरीका में रहते हैं जहाँ वे इस्टर्न मेनोनाइट सेमनरी में पढ़ाते हैं।
[1} Desmond Tutu, No Future without Forgiveness, 1st ed. (New York: Doubleday, 1999), 31
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